- 5 Posts
- 53 Comments
जनता की ताकत का नाम है लोकतंत्र। मतलब साफ है, लोकतंत्र में वहीं होगा जो जनता चाहेगी। माना जाता है कि राजनीतिक दल इसी उद़देश्य को आगे बढाकर जनता का विश्वास अर्जित करते हैं और जनता की चुनी हुई सरकार भी इसी मनोभाव से काम करती है। पर, आइए सोचें क्या सचमुच ऐसा हो रहा है। शायद हम लोकतंत्र की मान्यताओं में इस सवाल का जवाब ढूढेंगे तो हमें निराशा ही हाथ लगेगी। आजकल देश के विविध क्षेत्रों में राजनीतिक पार्टियां अपनी सुविधा के अनुसार लोकतंत्र और राष्ट्रीयता की परिभाषा गढ रही हैं। और सरकारें भी सुविधा की राजनीति का हिस्सा बने बगैर नहीं रह पा रहीं। हम बात की शुरुआत महाराष्ट्र से कर रहे हैं जहां विभाजित ठाकरे परिवार ने लोकतंत्र की नयी परिभाषा गढकर पूरे देश को उलझा रखा है। कभी राज तो कभी बाल ठाकरे इस राजनीति का पाशा फेंकते हैं और वे मीडिया के जरिए पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींच लेते हैं। शायद वे चाहते भी यही हैं। कभी उत्तर भारतीयों को मम्बई से निकालने का मुद़दा उछालकर तो कभी अमिताभ बच्चन ओर शाहरूख खान जैसों पर पत्थर और शब्दबाण चलाकर। सब जानते हैं कि लोकतंत्र में हर आदमी को अपनी बात कहने और स्वतंत्र ढंग से रहने का हक है, लेकिन ठाकरे परिवार ऐसा नहीं मानता। उनके लिए तो उसे ही बोलने का हक है जो उनके विचारों से सहमत हो। मतलब यह कि वे घोडे को गधा कहें तो आपको भी वही कहना होगा अन्यथा मुम्बई में नहीं रहने देंगे, जैसे मुम्बई उनके बाप की हो। पार्टियां अपने विचारों का परीक्षण चुनावों मे करती हैं। जनता का विश्वास मिलने पर वे अपने विचार को आगे बढाती हैं और नकार दिए जाने पर उसमें बदलाव करती हैं। यही राजनीति की परिपाटी भी है। मराठी मानुष के जिस नारे को हवा देकर राज ठाकरे और उनके चचा बाल ठाकरे ने लोकसभा ओर विधानसभा चुनाव का सामना किया उसका परिणाम पूरे देश के सामने है। दोनों चुनावों में महाराष्ट्र की जनता ने उन्हें नकार दिया। एक तरह से दकियानूस ठहरा दिया। जनता के बीच किए गए परीक्षण में वे असफल साबित हुए, लेकिन उनकी हिम्मत देखिए, वे अपने घिसे-पिटे विचार को पहले से अधिक हवा देने लगे हैं और जनविश्वास हासिल करने वाली वहां की सरकार उनकी पिछलग्गू बन गयी है। इस बार शिवसेना के निशाने पर शाहरूख खान हैं। वह भी इसलिए कि उन्होंने पाकिस्तानी खिलाडियों के बारे में अपनी राय जाहिर कर दी जो शिवसेना को अच्छा नहीं लगा। वे शाहरूख के पोस्टर जला रहे हैं ओर उनकी फिल्म को प्रदर्शित करने से रोक रहे हैं। मुम्बई में शिवसेना के इस रुख को मीडिया चाहे जिस रूप में उछाले निजी तौर पर मैं इसे बालीवुड की राजनीति का नूराकुश्ती के रूप में ही देखता हूं। शिवसेना के विरोध के चलते आज माई नेम इज खान को देश व्यापी समर्थन मिल रहा है और फिल्म के अच्छा कारोबार करने के संकेत मिल रहे हैं। शाहरूख को भी जो चाहिए उन्हें मुफ़त में मिल रहा है। मगर इस पूरी कहानी में सबसे खटकने वाली अगर कोई बात है तो वह महाराष्ट्र और केन्द्र की सरकारों का हर बार की तरह इस बार भी शिवसेना का पिछलग्गू बनना। वे मुम्बई और समूचे महाराष्ट्र में शिवसेना को नंगा नाच करने का मौका देकर खुद तमाशबीन बने हुए हैं। लोकतंत्र के नाम पर शिवसैनिक खुलेआम उत्तर भारतीयों पर हमले करते हैं, उनकी कमाई को खाक कर देते हैं, उन्हें जलील करते हैं और अपने ही देश में परदेशी बना देते हैं लेकिन इस गुण्डागर्दी को रोकने की हिम्मत वहां की सरकार नहीं कर पाती शिवाय यह कहने के कि किसी को भी कानून हाथ में लेने की इजाजत नहीं देंगे। आखिर क्या कारण है कि शिवसेना के जिन करतूतों को पूरा देश बेशर्मों की गुण्डागर्दी कह रहा है वह महाराष्ट्र की सरकार को दिख नहीं रहा है। सरकार ने तो शिवसेना को देश के संविधान से भी ऊपर बना रखा है। वे जो चाहते हैं डंके की चोट पर करते हैं और सरकार तमाशा देखती है जैसे उसे मजा आ रहा हो। इसीलिए राष्ट्रीय एकता के लिए महाराष्ट्र में विभाजित ठाकरे परिवार से भी अधिक खतरनाक वे ताकतें हैं जो तमाशबीन बनी हुई हैं-वहां की सरकार भी। अब जरूरत इस बात की है कि शिवसेना की हरकतों पर रोक लगाने के लिए चुनाव आयोग कोई पहले करे और ऐसा कानून बने कि जनतंत्र के उसूलों को रौंदने वाले दलों की मान्यता ही रद कर दी जाए। उनके चुनाव लडने पर रोक लगा दिया जाए।
Read Comments